Sunday 3 March 2013

ग़ज़ल


कोई ले ले मेरा दिल, ये दिल भी तो धड़कता है।
धड़कने  रुक जाए न, हमें डर  ये  ही रहता है।

ये टूटा  ही  सही  लेकिन  वफाएँ खूब है इसमें
नहीं मुर्दा मेरा दिल है, मुहब्बत ये भी करता है।

ये जीवन जो मिला हमको, खुदा की मेहरबानी है
खुदा ने ही बनाया दिल, खुदा भी इश्क़ करता है।

ये जो भी कह रहा है दिल, दिलों को छू रहा होगा
ये   बात   हैं  दिल  की इसे दिल ही  समझता है।

शिलालेख


मैं एक शिलालेख हूँ।
सिर्फ एक शिलालेख।
अपनी जगह मौन खड़ा
हथौड़े और छेनी के
वार लिए
कोमल हथेलियों को
स्पर्श करता,
शांत, गंभीर और निर्विघ्न
शिलालेख।
बस एक शिलालेख।
मैं एक शिलालेख हूँ,
सिर्फ एक शिलालेख।
मुझे अपनी भावनाओं को
प्रकट करने की इज़ाजत नहीं
मैं दूसरों की भावनाओं और प्रशस्ति को
प्रकट करता रहा हूँ सदा,
सुंदर शब्द और आकार मे ढालकर
और संचित रखता हूँ उन्हें,
युगों युगों तक।
क्योंकि मुझ पर उकेरे गए ये शब्द,
अनमोल हैं मानवता के लिए।
इसीलिए रखता हूँ उनका अस्तित्व,
अपने अंदर सहेज़ कर,
धाराशाही हो जाने तक।
क्योंकि मैं एक शिलालेख हूँ,
सिर्फ एक शिलालेख।


मुझे शब्द नहीं मिलते


मेरे हृदय में रोज उमड़ते हैं
सैकड़ों भाव
एक साथ .....
एक दूसरे का साथ देते
एक दूसरे को मात देते
एक पर एक हावी होता
एक में दूजा अपना वजूद खोता
लेकिन मुझे इनके अभिव्यक्ति के लिए
कोई शब्द नहीं मिलते
हाँ, मुझे शब्द नहीं मिलते।

सड़क पर निकलता किसी का प्राण
खींचता है ध्यान
बंद आस्तीन पर चढ़ा मेरा सूट
याद दिलाता है मुझे मेरा वजूद
बढ़ा लेता हूँ मैं अपनी रफ्तार
नहीं देखना चाहता मैं सड़क के पार
लेकिन मेरे मन में उभरता अपराधी भाव
मेरा साथ नहीं छोडते
फिर भी मुझे इनकी अभिव्यक्ति के लिए
कोई शब्द नहीं मिलते
हाँ, मुझे शब्द नहीं मिलते।

जब जब सुनाई देती मुझे कोई चीख
सोचता हूँ पता नहीं किसकी है ये जीत
कौन गया है हार ........
किसने खोया प्यार........
किसका लुटा संसार.......
आँसू तो दिखते हैं मुझे
मगर बयां करने के लिए
मेरे पास शब्द नहीं होते
हाँ, मुझे शब्द नहीं मिलते।

मेरी अंगुली थाम
खड़ा होता कोई इंसान
जब अनगिनत सीढ़ियाँ कर पार
पूछता है,  मुझसे मेरी पहचान
सच कहता हूँ रो उठता है  मेरा हृदय
बस आँखों से  मेरे रक्त नहीं बढ़ते
हाँ, मुझे शब्द नहीं मिलते।

किताबों में बिखरे सारे शब्द
मिलते हैं मुझे हर वक्त
ज्यों के त्यों अपनी जगह
मैं  पूछता हूँ उनसे, कि भाई
जब होती है मुझे तुम्हारी ज़रूरत
तुम मुझे क्यों नहीं मिलते ?
कहता है वो,
काम है हमारा, आपका ज्ञान बढ़ाना
मन के भावों को जगाना
नहीं काम हमारा कहीं जाना
हम अपनी जगह से कभी नहीं हिलते
इसीलिए आपको शब्द नहीं मिलते

पाना चाहते हो यदि हमें
तो झाँको अपने हृदय में
सुनो वो सारी आवाज़ें
जो तुम सुनना नहीं चाहते
झेलो वो सारी व्यथा
जो कलेजे में हुक बन उठती है
और आँखों से आँसू बन बहते हैं।
छूओ उन भावों को
जो मन में सदा घुमड़ते हैं।
क्योंकि शब्द यहीं से बनते हैं।

उस दिन से मैं लगातार
देखता हूँ एक नया संसार
मगर जीवन के आपाधापी  में
कभी वक़्त नहीं  मिलते
तो कभी शब्द नहीं मिलते।
मुझे शब्द नहीं मिलते।



ख़ामोशी


मैं ख़ामोश हूँ
गूंगा नहीं !
वैसे गूंगापन भी
ख़ामोशी का पर्याय तो
नहीं हुआ करता....
जीवित होते हैं
किसी गूंगे के अंदर भी
संवेदना, भाव, विचार
और उसे अभिव्यक्त करने वाले
सार्थक शब्द भी ।
मगर बिखर जाते हैं कहीं
जुबां तक आते-आते
निकलती है कुछ घिघयाती आवाज़
वीभत्स स्वर, अटपटे व अचिन्हित शब्द
जो होते है असफल
वहन करने में उनका अभिप्राय
नतीजतन
करा दिया जाता है उसे चुप
डांटकर, डपटकर
या ख़ुद ही हो जाता है वो चुप
अपने को निरर्थक मानकर
अपनी ही ख़ामोशी सालती है उसे
हर वक़्त, हर क्षण
और वह उसी ख़ामोशी से
सहता जाता है, अपनी हर ख़ामोशी ।
मगर ख़ामोशी हमेशा गूंगी नहीं होती
अगर ऐसा होता
तो शब्दहीन बच्चों की बातें
माँ कैसे समझ जाती
और कोई गूंगी माँ अपने बच्चे को
मूक भाषा भी, कहाँ सीखा पाती
ख़ामोशी देती है व्यक्ति को
शांत गंभीर शिक्षा
बयां करती है यह
किसी दुल्हन की प्रथम प्रणयेच्छा
ख़ामोशी बताती है
अपार दुख की अकथनीये पीर
स्पर्श कराती है ये,
अनुत्तरित प्रश्नों के कालमुक्त भयावह शरीर ।
ख़ामोशी सुनती है
कोकिल कंठों की मधुर तान से सरस राग
समेट लेती है यह
सफ़ेद रंग की तरह जहां में फैली समस्त आवाज़ ।
ख़ामोशी भावों की अभिव्यक्ति के लिए
शब्दों का हाथ नहीं थामती
इसीलिए ......
वह अधिक प्रभावशाली बन पाती है,
शब्द छिप जातें हैं
पल दो पल में अर्थ जताकर
मगर ख़ामोशी......
अक्सर हृदय में गहरी पैठ जाती है।
ख़ामोशी जब भी बुलाती है मुझे
अपने आगोश में
मैं आने से मना कर देता हूँ
क्योंकि...... मैं......
ख़ुद से भी बातें करते हुए
शब्दों का होठों से
उच्चारण करता हूँ
मगर कोई भी मुझे
सुन नहीं पता
क्योंकि मैं......
स्वयं में
हमेशा ही ख़ामोश रहता हूँ।